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कहाँ नहीं हो तुम

कहाँ नहीं हो तुम

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कहाँ नहीं हो तुम...

अलमारी खोलता हूँ तो 

करीने से तहाये हुए कपड़ो के बीच 

तुम्हे पाता हूँ 

आईने में देखता हूँ तो 

बेदाग़ दर्पण की चमक में 

तुम्हारा प्रतिबिम्ब झलकता है 

रसोई के एक-एक बर्तन में दिखाई देती है 

तुम्हारे हाथों की सुघड़ता.. 

खिडकियों के पर्दों से 

कहीं तुम्हारी खुशबु 

लहराती रहती है घर में 

बिस्तर की कसी हुई चादर 

तुम्हारे सुथरेपन की तरह 

बिछी रहती हैं, बिना सलवटें 

वैसे ही जैसे 

कभी तुम्हारे माथे पर 

बल नहीं पड़ते 

मेरे बेतरतीब फैले कपड़े उठाते हुए

सुबह की धूप सी तुम 

फैली रहती हो घर-भर में 

रात में चाँदनी सी 

छिटक जाती हो 

बगीचे के पेड़ों में 

दिखता है तुम्हारा ही ताजापन 

तो मुख्यद्वार की तरह तुम 

घेरे रहती हो अपने घर को 

एक सुरक्षा कवच सी... 

मैं तो बस नाम बनकर 

जड़ा रहता हूँ एक फ्रेम में 

सबसे बाहरी दिवार या 

‘मेन गेट’ पर 

लेकिन उसके भीतर 

घर तो बस तुमसे ही है....



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