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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Tragedy Classics

4  

सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Tragedy Classics

फिर भी …… हमेशा

फिर भी …… हमेशा

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गुथे हुए हैं प्राणों से कुछ

निर्वाक वैरागी से पतझड़

खलती हैं मुझको तुम्हारी यादें

फिर भी चलती साथ-साथ वो हमेशा। 


राहों का सहचर सूनापन है

आँसू और अकेलापन है

वियोगिनी-सी दिल की धड़कन है

निर्जन वन-कानन में चलते-चलते

कामना थकी पर पाँव न थके मेरे

फिर भी चलती साथ-साथ वो हमेशा। 


जगी-जगी हैं दीप्तिपूर्ण रातें

सुबकती है झम-झम बरसातें

खोयी-खोयी सी अनंत सौगातें

जल-जलकर बुझी हैं अभिलाषाएं

दग्धित रही अँगारों-सी जिंदगी

फिर भी चलती साथ-साथ वो हमेशा। 


खानाबदोशों जैसी भटकन है

रेगिस्तानों जैसा अंतर्मन है

आकुल आशा घर आँगन है

घायल हो श्रापित-सी जिंदगी

रह-रहकर दुख रही चोटिल अंगों-सी

फिर भी चलती साथ-साथ वो हमेशा। 


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