फ़ासले
फ़ासले
तेरे और मेरे होने के बीच,कुछ,नहीं बहुत फ़ासले थे
एक-दो नहीं कई शहर ,गाँव और क़स्बे थे
नदियाँ और वादियाँ थीं
कई अपने तो कई बेगाने थे
फिर भी सिर्फ तेरे होने के एहसास से ही
इन फासलों ने पनाह पा ली थी
नजदीकियों की गोद में
जहाँ दूर से आते शब्दों की आवाज़ भी
बड़े हौले से गालों को सहलाती हुई
नज़्म बन कर ज़हन में उतर आती और
मुस्कुराती हुई,आँखों में उतर कर दस्तक़ देती
ख़ामोश लबों से धीमे से कहती
"मै",..."मै" यंही हूँ
इन फासलों में नही
तुममें ही कहीं...!