पहाड़ की पगडंडी
पहाड़ की पगडंडी
ढूंढती हूं आसपास पहाड़ की पगडंडी लिए विकल तन,
जब भागदौड़ करती मेरी ज़िंदगी में अकुलाये मेरा क्लान्त मन।
वह पगडंडी जो बनाती थी रास्ता गांव से शहर की ओर,
अब शहर में रमा मन भूल गया कहां है उसका छोर।
गुलजार बनी रही पगडंडी लगती थी सबकी जान,
कामयाबी की होड़ में अब वह हो गई है सुनसान।
जिस पर चलते मैंने जाना ना हार थक कर बैठना,
वह पगडंडी मुझे बतलाती ना हौसला तू अपना तोड़ना।
याद आता है अपना गांव और उसकी गलियां,
इंतजार जैसे कर रही हो मेरे पहाड़ की पगडंडियाँ।
उन यादों को समेटते रात मेरी सो जाती है,
पगडंडी पर पहुंच नहीं पाती और सुबह हो जाती है।
आज अजनबी बनकर उस ओर चली जाऊंगी,
उस कच्चे रास्ते पर चल यादों को पका लाऊंगी।
टेढ़ी लहराती संकरी जो पहुंचाएगी गांव तक,
गोद से होकर उसकी पहुँचुगीं अंगना के पेड़ की छांव तक।
अब मैं ख्वाबों में अक्सर खुद को उस पगडंडी पर पाती हूं,
खोई बचपन की यादों के बगीचे में टहल आती हूं।
