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मिली साहा

Abstract

4.8  

मिली साहा

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पैसा

पैसा

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दुनिया में इंसान के लिए पैसा आज इतना बड़ा हो गया,

कि हर रिश्ता दिल से निकल कर कोने में खड़ा हो गया,

पैसा ही जात, पैसा ही धर्म, पैसा ही हो गया है भगवान,

पैसों में तोला जा रहा है हर रिश्ता पैसों में ही हर इंसान,


दौलत यहांँ है जिसके पास, वही अपना बाकी अनजान,

दौलत के लिए ही यहाँ इंसानियत भूलता जा रहा इंसान,

भाई भाई से लड़ता यहाँ, माता-पिता को भी भूल जाता,

अपने भी दुश्मन नज़र आते जब दौलत का नशा चढ़ता,


दौलत की अंधाधुंध दौड़ में, कहांँ से कहांँ निकल जाता,

समझ नहीं पाता इंसान, कब वो अपनों से दूर हो जाता,

माना ज़रूरी है पैसा सबके लिए, ज़िन्दगी जीने के लिए,

पर पैसा सुकून नहीं खरीद सकता ज़िंदगी जीने के लिए,


पैसे के लिए कितनी ही घटनाओं को दिया जाता अंजाम,

नीतिदिन खबरें पढ़ते हैं हम कैसे-कैसे इसके हैं परिणाम,

इंसान को अंधा बना देती है ऐसी होती इस पैसे की माया,

तन्हा रह जाता है वो जो केवल पैसों के संसार में समाया,


रिश्ता दूर हो तो चिंता नहीं, पैसों को तिजोरी में रखता है,

इंसान अपनों से दूर होकर पैसों में सदा खुशियांँ ढूंँढता है,

हाय पैसा, हाय पैसा रात दिन बस यही रटता जाता जाप,

भावना रहित करताजा रहा इंसान को पैसे का बढ़ता ताप।


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