पानी बनूं या पत्थर
पानी बनूं या पत्थर
पानी बनूँ, पत्थर बनूँ या,
सोचती मैं हर घड़ी,
ढाल में बह जाऊँ या,
स्थिर अडिग होऊं खड़ी,
पत्थर बनूँ तो डर मुझे,
मैं टूट एक दिन जाऊँगी,
सिद्धांतों को ढोते-ढोते,
चट्टान कोई बन जाऊँगी,
या कभी अवरोध बन जाऊँगी,
किसी के मार्ग का,
डर मुझे मैं एक दिन,
बेजान सी हो जाऊँगी,
तब सोचती पानी बनूं,
जीवंत राह सकती सदा,
बिन रुके के कोस,
निर्मल होके बाद सकती सदा,
लेकिन मुझे ये डर भी है,
गर पानी मैं बन जाऊँगी,
चलना ही होगा लक्ष्य तब,
मंज़िल किसे कहा पाऊंगी,
रौद्र हो जाऊँगी कभी तो,
विध्वंस ना कर दूं कहीं,
और रोक ले कोई बांध से तो,
असहाय रुक जाऊँ वहीं,
वारिद से ही अस्तित्व होगा,
ऊंचा नहीं चढ़ पाऊंगी,
समुद में मिल जाऊँ तो फिर ,
समुद्र ही बन जाऊँगी,
क्षणिक हो जाएगा ये जीवन,
स्थिरता ख़त्म हो जाएगी,
पानी गर मैं बन गयी तो,
मज़बूत ना रह पाऊंगी,
पानी नहीं पत्थर नहीं,
संगम बनूँगी एक नया,
पानी से निर्मल मन करूँगी
और शरीर पत्थर के समां,
अडिग हो स्थिर दिखे,
वो चरित्र कोई बन जाऊँगी,
और जग की सारी गंदगी,
पानी बन बहा ले जाऊँगी,
मज़बूत इतनी मैं बनूँगी,
कोई तोड़ ना फ़िर पाएगा,
पानी बनूँगी मैं सरल कि,
कोई मुट्ठी में बंद क्या कर पाएगा।।
