नफ़रत की सरहदें
नफ़रत की सरहदें
सरहदों से वास्ता जब से इंसान का हुआ।
तब से नफरतों का आलम बेपनाह हुआ।।
चारों ओर फैली हैं तन्हाई की दीवारें,
द्वेष में मिट चुकी हैं शांति सौजन्य की बातें।
अब तो इंसानियत का स्तर पाया गिरा हुआ।
सरहदों से वास्ता जब से इंसान का हुआ।
तब से नफरतों का आलम बेपनाह हुआ।।
ईमान बिक गए व अशांति की आग फैली,
मन में भरा है मैल औ प्रीत की बात न कोई।
अब तो सीमाओं का है बस जाल बिखरा हुआ।
सरहदों से वास्ता जब से इंसान का हुआ।
तब से नफरतों का आलम बेपनाह हुआ।।
किस-किस से रोएँ रोने कि घृणा ही पंख फैलाती,
ना है कोई सहारा मानवता है तरसती।
अब तो दिलों में भी है कारतूस भरा हुआ।
सरहदों से वास्ता जब से इंसान का हुआ।
तब से नफरतों का आलम बेपनाह हुआ।।
क्यों बार-बार हम सब सनातन को भूल जाते?
क्या रंजिशों से ही केवल इतिहास बदले जाते?
अब तो 'बँटवारे' शब्द को हर शख्स है अपनाए हुआ।
सरहदों से वास्ता जब से इंसान का हुआ।
तब से नफरतों का आलम बेपनाह हुआ।।
