नोक झोंक श्रीमती जी से (हास्य)
नोक झोंक श्रीमती जी से (हास्य)
एक दिन श्रीमती जी
जाने क्यों ज़िद पर अड़ गई,
बोली महंगी साड़ी दिलवाओ या
घूमने कहीं ले जाओ,
मैने उन्हें बहुत समझाया पर
उनकी सुई मानो
बस इसी पर अटक गई,
"महंगी साड़ी दिलवाओ या
घूमने कहीं ले जाओ"।
देख तेवर पहली बार
श्रीमती जी के
मेरी तो सांस अटक गई,
सोचने लगा
ये तो बना बजट डुबाएगी
मेरी गाढ़े कमाई का भट्टा बैठाएगी।
महंगाई और खर्चे बढ़ने से
मैं बोला "जान जानेमन"
थोड़ा तो रहम खाओ,
अपने हर महीने के शौक पर
थोड़ा ब्रेक तो लगाओ,
ये जो आसमान छूती
फरमाइशें हैं तुम्हारी
थोड़ा रुक कर
इन्हें फरमाओ।
मेरी बात सुनकर
श्रीमती जी की सटक गई,
बोली इतनी छोटी बात पर
बातें बनाते हो
क्यों मुझे हर दम टरकाते हो
मेरी बातों से क्यों भय खाते हो।
देखो उधर शर्मा जी को
तुम्हारे जैसे पद पर आसीन हैं
घर गाड़ी रुआब तो देखो
घर में उनके क्या शानदार कालीन हैं।
और अपनी श्रीमती जी पर लट्टू हुए जाते हैं
उनकी हर बात मानते हैं,
उन्हें यहां वहां घुमाते हैं
महंगी मंहगी साड़ियाँ, गहने
उन्हें हर महीने दिलवाते हैं
महंगे रेस्टोरेंट में खाना भी खिलाते हैं,
और एक आप हो
जो बस बहाने बनाते हो
महंगाई का रोना हरदम गाते हो।
क्या करोगे इतने पैसे जोड़कर
खुशियों को हमारी यूं मार कर,
एक दिन तो सब मिट्टी में मिल जाना है
फिर पैसे बचा कर
कौन सा पुण्य कमाना है।
श्रीमती जी को अब कौन समझाए
मांगे पूरी करते करते उनकी,
मेरी तो कमर झुक गई,
आंखों में मोटा चश्मा
चेहरे पर झुर्रियां भी हो गई।
उधर श्रीमती जी
मुंह बना के बैठ गई
इतनी छोटी बात पर ऐंठ गई,
मैंने उन्हें बहुत समझाया
पैसों का गणित बताया
महंगाई पर लम्बा
लेक्चर पिलवाया,
बताया किस कदर हालत
आउट ऑफ कंट्रोल हो गए हैं
घर चलाने के लाले पड़ गए हैं,
अब खर्चे ज्यादा
आमदनी कम हो गई हैं
और तुम्हें घूमने की पड़ी है,
देखो ये खटारा कार भी तो
वर्षों से दरवाजे पे खड़ी है,
पैसे होते तो इसे भी ठीक कराता
सरकारी बसों में फिर मैं
यूं धक्के ना खाता।
श्रीमती जी बोली
आपसे तो बातें करना बेकार है
आपकी इसी कंजूसियों से
हम बेबस लाचार हैं,
सब कुछ होते हुए भी
यूं हाथ फैलाना पड़ता है,
अपनी खुशियों के खातिर
तिल तिल मरना पड़ता है
इच्छाओं को दिल में
दफन करना पड़ता है।
आपकी कंजूसी की ये आदत
जाते जाते भी नहीं जायेगी,
ये हमें अंदर ही अंदर
दीमक बन खा जायेगी।