नजरिया
नजरिया
सबके अपने-अपने फलसफे है
सबके अपने-अपने नजरिये
जाने क्यों तकरार है
जब आपस में दो बातें ना मिले?
क्यों ये सोच हावी है कि
जो है बस हम ही हैं?
क्यों नहीं समझते हैं कि
वो भी अपनी समझ में सही है?
क्यों अपनी ही सोच की चादर
हम उसे ओढ़ाना चाहते हैं?
क्यों नहीं एक बार
उसके लिबास में जाते?
क्यों इतनी फुरसत है कि
रंजिशें पाल-पोस लेते हैं दिलों में?
क्यों एक गलती भर से
सारी अच्छाई भूल जाते है पलों में?
क्यों दीवारों के दायरों में बंद होकर
भरी-पूरी दुनिया नजर अंदाज करते हैं?
क्यों अब बचपन के जैसे
दो पल में फिर से हिल-मिल पाते?
चलो अपना नजरिया
दूसरे के नजरिये से देखते हैं
बात-बात पे लड़ने की बजाय
चलो साथ मिलकर चलते हैं
