नज़्म
नज़्म
एक रोज़ सर्द सन्नाटे भरे रात में,
माँ के जैसे नरम गोद वाले बिस्तर पर,
ऊपर छत की तरफ एक टक देख रही थी,
तब ही मेरे अंदर के दुनिया में,
सवालों का एक सैलाब उठा,
मुझे बहा ले गया,
उसमे डूबती चली गई,
सोचती चली गई,
अगर तुम ना हो, तो ज़िन्दगी कैसी होगी।
सुनहरा बदन, जैसे कोई जादुई छड़ी,
जिसको घुमा, मेरी सारी परेशानी गायब हो गई,
सुनहरे रंग ने किस्मत निखार दिया,
ऊंचाइयों वाली सीढ़ी की तरह,
आसमान की बुलंदियों को छूना सिखाया,
अंधेरे में जुगनू की तरह रास्ता दिखाया।
मेरे दर्द भरे किस्सों का बोझ सीने से
कागज़ पे उतारने वाला वो सुनहरा कलम,
ना रहा तो मेरी ज़िंदगी के आगे के पन्ने ख़ाली रह जाएंगे।