निज प्रकृति
निज प्रकृति
चल चला चल राही चल चला चल।
नीर छीर विवेक संग तू चला चल।।
मोड़ आयेगे कभी ऐसे भी जीवन में।
प्रलोभन भी जगाएंगे कभी सीने में।।
तज कर इन प्रलोभनों को तू सदा सदा।
अपने आन मान शान से ही चला चल।।
माना सूख गई है जीवन की हर आशा ज्योति।
मन में तू सदा जगाना,केवल आशा के मोती।।
रूठ ही जाए क्यों न चाहे तुझसे ये ज़माना।
प्रलोभनों का ही क्यों न बनाए वो ठिकाना।।
मत भूलना कभी निज प्रकृति को तू प्यारे।
सत्य के ही बनाने है सदा तुझे अपने द्वारे।।
संस्कार के सम्मुख झुकेगा ब्रह्मांड सारा।
सत्य और प्रेम से जो तूने उसे ही पुकारा।।
