नासूर
नासूर
तुम्हारे हर जख्म को सिर माथे लगा
मुस्कराती रही मैं
क्या पता था नासूर बन इक दिन
ये मुझे ही रूलायेगा
तुम्हें चाहने की शर्त थी कि
मुझे खेलना था अंगारों से
हां खेली भी मगर खुद को जलाकर
हजारों आंधियों से जूझकर
पहुंच तो गई तुम तक
मगर तुम्हारी बेरूखी ने फिर नये
धुन्ध में लिपटा दिया
देखो!
आज भी तुम्हारे दिये नासूर को लिए
गुम हूं उन्हीं आंधियों में
बस इसी इन्तजार में कि
तुम आओ और लगाकर मरहम
हर लो मेरी सारी पीडा़
जो दी है तुमने मुझे तोहफे में
तुमसे इश्क के बदले.......