नक़ाब...
नक़ाब...
वो गया था, परिंदों सी उड़ान भर के
तन्हाँ मुझे चौराहे पर, खड़ा कर के…
आज मैंने भी उसका, नक़ाब है पहना
समझना चाहती हूँ उसे, उसके जैसा बनके…
तमाम उम्मीदों के चराग़, एक साथ बुझ गए
आँधियों में ज़ली थी, शमा बन के…
बदग़ुमानी में कुछ, देख -सुन सकता नहीं
एक बार ज़रा देखे वो, मुझे समझ के…
वक्त के तमाम खेल हैं , उसके हवाले ‘अर्पिता’
मेरे सिवा कौन रहेगा, यूँ खिलौना बनके।