मज़हब…
मज़हब…
1 min
478
मुनासिब होगा, ताउम्र गुनाहगार रहें
शर्तों पर मुआफ़ी, ना दो मुझे…
इस जहाँ की रवायतें, है नामंजूर
चाहे तो जिंदा, दफना दो मुझे…
बेखौफ हम कहेंगे, हशरे हाल जहाँ का
जो हो जाएँ काफ़िर, तो सजा दो मुझे…
मिलकर जी लो, ऐ मेरे वतन परस्तों
वरना हर दाग़ की, वजहा दो मुझे…
मजबूर का किसी, मज़हब से ना वास्ता
गर हो ऐसी दीन-ए-इलाही, तो बता दो मुझे।
