नारी:एक कहानी
नारी:एक कहानी
एक दुखियारी नारी की
मैं करुण कहानी सुनाता हूँ
अपने कुछ शब्दों से उसको
ममता का फूल चढ़ाता हूँ
मैले कुचैले वस्त्र उसके
चेहरे पर झुर्रीयो का डेरा था
उसे बस इतनी उम्मीद थी कि
हर निशा का कही न कही सबेरा था
उसी के मन्नतों का ही ये असर था
कि उसके सारे लाल धन दौलत से
फूले थे
मगर नियति की विडम्बना ये देखो
की घर की देवी को ही भूले थे
जिसकी ममता के छत्रछाया में
फले फूले जवान हुए
उसी माता के लिए, उसी के लड़के
जाने कितने अनजान हुए
उस दुखियारी को छोड़ वे
महानगर को चले गए
वहाँ के चकाचौंध में सब के
सब छले गए
सीता जैसे ही वो नारी दारुण
दुःख उठाती है
कोसती है अपनी किस्मत को,
पर ममता के कारण अपने
बच्चों को कोस न पाती है
भूखी प्यासी रह कर वो
गुरबत में दिन बिताती है
उसका कृन्दन सुनकर निष्ठुर
नियति को शर्म भी नहीं आती है
घर घर की वो बासन मलती,
मजदूरी भी करती है
पर अपना दुःख भरा संदेश
पुत्रों के पास भेजने से डरती है
कैसे कठोर हुए वो की अपनी
निज जननी को भूले हैं
अपनी कामयाबी ऊचाई पर
आनी चाहिए शर्म उन्हें,
पर वो फूले हैं
जो आँचल उनको धूप गर्मी से
बचाया वही आँचल आज
खुद का आँसू पोछने पर
मजबूर है
बार बार ये प्रश्न उठता है मन में
की क्या यही नियति का दस्तूर है