क्यों मांझी संग प्रीत लगाई
क्यों मांझी संग प्रीत लगाई
क्यों माझी संग प्रीत लगाई
इक किश्ती माझी रंग में रंग आई
खुद को मांझी का समझ
खुद पर ही इतराई और कभी शरमाई
लहरों संग भाग वो चली
मौजों संग इठलाई
क्यों माझी संग प्रीत लगाई।
उसे ना है कुछ कहना
और ना चाहती कुछ है सुनना
तरंगों संग उछलना उमंगो संग मचलना
ताल बजाने लगी वो लहरों संग
फिर धीरे-धीरे वो गुनगुनाई
क्यों माझी संग प्रीत लगाई।
किनारों से लगी डरने थी वो
वापस चाहती नहीं मुड़ना थी वो
खो देने का डर था शायद इस कदर
कि तूफां आंधी से झगड़ना भी वो सीख लाई
क्यों माझी संग प्रीत लगाई।
अस्तित्व मान चुकी थी जिसे
छोड़ चला एक दिन वो उसे
मन ही मन कोसा खुद को
फिर खुद पर ही मुस्कुराई
बोली क्यो मांझी संग प्रीत लगाई।
