कलयुग कि द्रौपदी
कलयुग कि द्रौपदी
कर जोड़ करूँ मैं शीश वंदन
ध्यान धरूँ उस ‘प्रकृति’ की
जिसकी प्रादुर्भाव से ,
नारी ने ‘नारायणी ‘ स्वरूप धरी है,
जगत जिसे कभी काली-दुर्गा ,
पार्वती, वैष्णवी रूप में वारी है
आज भी वो शक्ति है,
उमा स्वरूपा है
सिर्फ़ प्रतिमा में ही नहीं
वरन प्रति - ‘माँ’ में है!
घोर अधर्म जब पाँव पसारी हो
सत्य- सनातन की सुसज्जित संसार में
एक हंसते-खेलते परिवार को
जब अपनो ने ही उजाड़ दिया हो
भूमि की चंद ग़ज टुकड़ों के लिए
नियत अपनी ख़ूँख़ार किए हो
बार बार खून के रिश्ते तार-तार किए हो
तीन सगे भाई का रिश्ता क्या इतना कमजोर पड़ा था
तीनों का परिवार बड़ा था,
तीनों में तू सब से बड़ा था
पूजूँ तो देवों में ‘हर देव’ था तू
तेरा दूसरा अनुज भी नरों में नरेश था
छोटे भाई के परिवार पे क्यों तूने प्रहार किया
फिर भी तूने कृत्य किए ऐसे
एक नारी पर स्वयं की ‘भाभो’ पर
इतना अत्याचार किए
फिर भी वो लोक-लज्जा से चुप चाप लाचार रही
वो भूल गई स्वयं पर हुई हिंसा को
सन 2003 की प्रहार को
घनघोर वर्षा ,
थी आँधी-तूफ़ान सी आई
घेर के तुमने मारा था
बारिश के पानी से भरे गड्ढे में
उल्टे मुँह धकेल के
किया था लहू-लुहान एक बेबस नारी को
चढ़ के सभी उसकी छाती पे
खूब अट्टहास किया था,
स्वयं कृष्ण भी रोया होगा
देख दशा कलयुग की द्रौपदी की
इस वीभत्स भीड़ में अब कोई
गोविन्द नज़र ना आता है
गाँव वालों के समक्ष तूने
कर इकट्ठा मुखिया-पंचायत को
बॉन्ड बँधवा दिए छोटे भाई को ले के दबाव में
वो भूल गई अपनी पीड़ा को,
देख पति के ह्य बंधन को
भूल गई स्वयं की पीड़ा क्रंदन को
हाथ जोड़ ली उस नारी ने
खुद चोटिल होकर भी ,
पाँव पीछे कर ली समाज में
जिस क़ानून व्यवस्था से न्याय की गुहार लगाई थी
उसी के पास एक पर्चा दाखिल होता है
दर्द बयाँ था उस दाखिलनामे में
हार गई एक नारी दुशासन से
बिहार प्रदेश के तथाकथित
सुशासन बाबू के कुशासन से
दिन ढला रात गया
दुखों की पुड़िया की सौगात गया
दिन सुहाने ढल रहे थे
रात चाँदनी सी थी,
घर - परिवार बढ़ रहा था
घरों में बेटा- पतोहू
पोता पोती खिल खिला रहे थे
अपनी बेटा-बेटियों की उच्च शिक्षा
दिल्ली में दिलवा रही थी
छोड़ जंगलराज बिहार को
वो चौदह वर्षों से शहर वास कर
बच्चों के स्वर्ण सपनों को सँवार रही थी
मगर काल चक्र ने फिर से करवट ली
इनको फिर से अपना ग्रास बना ली।
