चुप रह कर
चुप रह कर
चुप रह कर भी मैं करती रही प्रतीक्षा
कि आओगे तुम तो कह डालूंगी जज्बात सारे
अपने दिल मे उठे भावों के समंदर को शान्त कर
मैं हो जाऊंगी उन्मुक्त पंछी सी
अपने भावों को लिख डालती हूँ शब्दो में
असहनीय पीड़ा को उड़ेल देती हूँ कोरे कागज पर
मनोभावों की लड़ियाँ पिरोई हैं अपने शब्दोद्गार में
चुप रह कर भी मैं करती रही प्रतीक्षा
सोचती रही तुम पढ़ पाओगे शब्दो मे उकेरे जज्बात
किंतु मैं रही प्रतिक्षारत ओर तुम समझ ही नही पाए
वही मेरी प्रतीक्षा जैसे धरती गगन एक नही हो सकते
साक्षी रही प्रकृति भी मेरे प्रेम की
मानो शब्दो मे उछाल दिए हो शब्द मैंने कि
प्रतिध्वनि शायद तुम तक जा पाए
चुप रह कर भी मैं करती रही प्रतीक्षा
शब्द रूप में मेरे भाव अपठनीय ही रहे
आशा की किरण को मैने रखा जीवित स्वयं में
सोच यही कि कभी तो पलट कर आओगे मुझ तक
रहूंगी जनजन्मान्तर तक प्रतिक्षारत तुम्हारे लिए
मैने तुम में ही स्वयं को पाया है स्वयं में ही तुमको
तुम्हारे लिए प्रतिबद्ध शब्दो मे भी प्रतिक्षारत भी।

