नारी-बेबसी की धूप में
नारी-बेबसी की धूप में
ता जिन्दगी सरेआम लुटती रही उसकी अस्मिता,
कभी बेटी, कभी पत्नी, कभी मां एक अबला के रूप में
बस छांव की तलाश में भटकती रही इधर-उधर,
सहती रही,तरसती रही, जलती रही बेबसी की धूप में
होंठो पर न शिकवे न शिकायतें कभी, छुपकर आंसू पौंछता आंचल
मौन को व्यक्त करती रही टूटी चूड़ियां , कभी चुभती हुई पैर की पायल
बस साया की मानिंद सारी जिंदगी साथ चलती रही परिछायी सी जमाने में
कभी बारिस बनी, कभी धूप भी, कभी छांव भी, जब जीवन लगा जलाने में
सीता सी सह विरह वेदना, देती रही हमेशा अग्नि परीक्षा भी
इस दुनिया में कौन भला कर पाया, उसके त्याग, प्रेम की समीक्षा भी
कभी राधा की प्रेमासक्ति, कभी मीरा की बन निर्गुण भक्ति सी
न थकी कभी, न थमी कभी,चलती रही लिऐ प्रेम अनुरक्ति सी
वह जो लुटाती रही जीवन का हर पल हमारे लिए ताजिन्दगी
और हम कथित पुरूष होने के दंभ में कभी व्यक्त न कर पाये शर्मिंदगी
कभी हमने उसका दर्द न जाना,न समझा कभी तन्हाई को
उसके दिल की थाह न पायी और न माप सके गहराई को
दुनिया ने देखा उसको हवस भरी नजरों से हरदम
जहां शास्त्रो में थी कभी सरस्वती,लक्ष्मी, दुर्गा रूप में
बस छांव की तलाश में भटकती रही इधर-उधर
सहती रही, तरसती रही जलती रही बेबसी की धूप में।।
