मुखिया...
मुखिया...
रास्ते कठिन
जिंदगी बोझिल सी लगती है
जन्मे थे जिनके आँगन में
वो आँगन की फुलवारी
फीकी सी लगती है
आंसू ज़ज्बात ओर है क्या
हौसले बिखरे
बेबसी की चादर मे सिमटे
रूह भी तो आज निकल सी
गई लगती है ..
घर का मुखिया
पड़ा है समक्ष
ज़िंदगी हार कर...
आंसू बिखरे
रास्ते सिमटे
घर जैसे
श्मशान की छाया लगती है.....
धड़कन गुमसुम
नयन पथरीले
ख्वाहिशें भी जैसे
आज
मर सी गयी लगती हैं
ज़ज्बात टूटे
रूह भी तो
बह संग उनके
चल दी लगती है...
कांच में सिमटी काया
समक्ष शोकाकुल परिवार
बस निहार रहा....
सफेद चादर में उस बेजान
देह को
अपने मुखिया को....!