मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
सिमटी थी, मेरी दुनिया
घर की चारदीवारी में
हर पल सपने संजोती
रिश्तों में प्यार घोलती
ऊपर वाले का शुक्र मनाती
जीवन से प्यार करती
उसका आभार मानती
दिन यूँ ही गुजरते रहे
ज़िन्दगी यूँ ही चलती रही
फिर न जाने ऐसा क्या हुआ
कैसे और कब, पता न चला
दीवारों में दरारें पड़ने लगीं
भीतर ही भीतर कुछ ढहने लगा
रिश्तों को दीमक लगने लगी
एक दिन अचानक ऐसा लगा
सब कुछ बेमानी सा लगने लगा
ज़िन्दगी है रुकी हुई
बेकार सी, बेजान सी लगने लगी
डूबती उभरती खुद को संजोती
इसे संभालूँ, उसे सँवारूँ
क्या करूँ, क्या न करूँ
अपने भीतर कैसे जोडूँ
टूटे हुए अहसासों को
वक्त मरहम हर दर्द का
इंतज़ार करूँ मैं उस पल का