मोहबत का पैगाम
मोहबत का पैगाम
थमे क्यूँ है कदम तेरे अभी बस शाम ही तो है
शिखर पे पहुँचने के बाद बस आराम ही तो है
हवा के बिन कभी कोई दिया रोशन नही होता
हवा फिर भी बुझाने के लिये बदनाम ही तो है
मिलन की चाह में ख़ुद का अस्तित्व खो देना
नदी के एक तरफा प्यार का अंजाम ही तो है
फूल, तितली, नदी, सागर, दिया, बाती, जमीं, अम्बर
मोहबत को दिये रब के सभी पैगाम ही तो है
हुआ है जो होगा जो भी ये सब पहले से लिखा है
लगा मुझपे लगा तुझपे बस इल्जाम ही तो है
जिसे कहती तू अल्लाह है जिसे भगवान में कहता
वो मेरा है वो तेरा है सभी का राम ही तो है
ऋषभ करते रहो चाहत सभी से मुल्क में अपने
अमन के वास्ते ये नेक सबसे काम ही तो है