मनकही
मनकही
दबी कंठध्वनि
मुंद चुके नेत्र
मूक ज़ुबान
क्षीण कर्णशक्ति
शून्य स्पर्श
यूँ ही नहीं...
खो देती हैं इन्द्रियाँ
अपने यथार्थ को !
सब मर जाता है खुद ही
रोज़ होती है मुलाकातें जब
बहरे,नेत्रहीन और गूंगे
भावहीन सायों से !
दुर्भाग्यवश ज़हन में
स्थायित्व पा जाता है
वो खंडित प्रेम-बिंदु
पनप जाती है आस्था
कैद होकर वादों में !
भावों के प्रेत कभी
पीछा नहीं छोड़ते !