मज़दूर की कोई नहीं सुनता है
मज़दूर की कोई नहीं सुनता है
मज़दूर की यहां पर कोई नहीं सुनता है
हर आदमी यहां अपना ही पेट भरता है
किसको दुआ दे, किसको हम इल्जाम दे,
हर शख्स हमे यहां पर रुलाया करता है
मज़दूर का नसीब ही जब यहाँ ख़ुदा,
एक बन्द स्याही के पेन से लिखता है
मज़दूर फिर क्या ख़ाक हँसा करता है
मज़दूर की यहां पर कोई नहीं सुनता है
हम मालिक का यहां हर कहना मानते है,
फिर भी मालिक हमारा ही कत्ल करता है
सबकी ही यहां पर और, और की मांग है,
हमारी बस रोटी, कपड़ा, मकान की मांग है,
इन चीजों के लिये हमे रोज़ मरना पड़ता है
मज़दूर की यहां पर कोई नहीं सुनता है
पहले से ग़रीबी ऊपर से हो जाती है टीबी,
पेट भरने के लिये हमे रोज़ लड़ना पड़ता है
मज़दूर का दिल हर कोई तोड़ा करता है
हमारी पीड़ा यहां कोई नहीं समझता है
हर अमीर हमे बस जानवर समझता है
मज़दूर की यहां पर कोई नहीं सुनता है
इन बुझे दीयों में यहां पर कौन तेल डाले,
हर शख्स अपने ही दीये में तेल भरता है
आप लोग सोने के महल के लिये जीते है
हम लोग दो वक्त की रोटी के लिये जीते है
मज़दूर रोटी को ही ख़ुदा समझा करता है
तू मज़दूर है, हर समस्या कर सकता दूर है
हर कठिन काम करने का तेरे पास सिंदूर है
अमीरों के सामने तू बहुत रोया है,
उनके सामने तू बहुत गिड़गिड़ाया है,
उठ खड़ा हो सबको बता दे, तू कोहिनूर है
तू मज़दूर है, तेरे पास खुद का नूर है