महबूब से बिछड़ पाता नहीं
महबूब से बिछड़ पाता नहीं
दिल के गुलिस्ताँ में अब कोई फूल खिलता नहीं
तुम्हारी तरह कोई और भी तो मुझे मिलता नहीं
मिल जाता तुम्हारा साथ गर उम्र भर के लिए
फिर ये दिल यूँ ही तन्हा होकर जलता नहीं
इंसानों से भरी दुनिया में मैं तन्हा खड़ा हूँ
चाहूँ फिर भी तन्हाइयों से दिल निकलता नहीं
उजालों में रहने के बाद अंधेरो में गर जाना हो
कुछ पल के लिए आँखों को कुछ भी तो दिखता नहीं
इश्क़ का सफर भी कितना अजीब सफर है
बिछड़ कर भी दीवाना, महबूब से बिछड़ पाता नहीं