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suvidha gupta

Tragedy

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suvidha gupta

Tragedy

महामारी में कालाबाजारी

महामारी में कालाबाजारी

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जाने वालों हम शर्मिंदा हैं, 

महामारी में भी कालाबाजारी वाले ज़िंदा हैं,

मुनाफाखोरी ने बरपाया हाहाकार है,

जमाखोरी का चहूं ओर बाज़ार है।


कोविड से दुनिया फिर रही है मारी मारी,

फिर भी रुक नहीं रही है कालाबाजारी,

मनुष्यता हो गई है बिल्कुल कोरी,

महामारी पर भी भारी पड़ रही है मुनाफाखोरी।


कौन हैं यह लोग कालाबाजारी, 

मैं, आप और हम यानी दुनिया सारी, 

जिसका जितना बस चल रहा है, 

वह उतना ही नोचने में लग रहा है।


इंसानों के बारे में अब क्या ही कहिए,

हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है,

जनाब, इस जन्म का तो छोड़िए, 

अगले कईं जन्मों का बस अभी कमा लेना चाहता है।


देखकर, सुनकर सिर शर्म से गड़ जाता है, 

कि कहां जाकर मुंह छिपाएं, 

इंसानियत की उठती अर्थी को,

अब कहां गाड़ कर आएं।


ईश्वर और प्रकृति भी ताकते मौन हैं,

मनुष्य ही मनुष्य के आगे अब गौण हैं,

भयंकर त्रासदी में भी अगर हम नहीं सुधरें,

ईश्वर ही जानें फिर इस भंवर से हम कैसे उबरें।


अब भी समय है मानवता के हत्यारों संभल जाओ,

मनुष्यता की टूटती सांसों पर कुछ तो रहम खाओ,

ईश्वर पिता तो प्रकृति मां है, हमारी गलतियां भूल जाएंगे,

फिर देखना, सुनहरे दिन लौट कर अवश्य आएंगे...

फिर देखना, सुनहरे दिन लौट कर अवश्य आएंगे...



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