मां धीरे-धीरे ढल रही है...
मां धीरे-धीरे ढल रही है...
मां धीरे-धीरे ढल रही है...
हाथों से जैसे रेत फिसल रही है...
मां, कर्तव्य और दुनियादारी के,
दो पाटों में पिस रही है,
किससे, क्या, कितना कहूं या ना कहूं
की दुविधा में फंस रही है,
मां धीरे-धीरे ढल रही है...
मां, तू है तो दिन का उजियारा है
खुशियों के दीप हैं
तेरे बिना तो बस अंधियारा ही अंधियारा है
मां धीरे-धीरे ढल रही है...
मां, देख ना.. तम की निशा
धीरे-धीरे हमारी ओर बढ़ रही है
हिम्मत कर..उठ खड़ी हो,
जीना है अपने लिए और हमारे लिए
मां धीरे-धीरे ढल रही है...
हाथों से जैसे रेत फिसल रही है...
मां धीरे-धीरे ढल रही है...