पत्नियां जितना भी करें...
पत्नियां जितना भी करें...
बहुत सी पत्नियां उम्र लगा देती हैं घर को संवारने में,
फिर भी कुछ कमी रह ही जाती है।
ऐसी ही पत्नियों को समर्पित मेरी यह कविता - पत्नियां जितना भी करें...
पत्नियां जितना भी करें, कम पड़ ही जाती हैं
सेवा कितनी ही करें, फिर भी लापरवाह मान ली जाती हैं
सुबह कितना ही जल्दी उठें, फिर भी देर हो ही जाती है
घर कितना ही ठीक रखें, फिर भी सही से रख नहीं पाती हैं
चाय कितने ही प्यार से बनाएं, फिर भी वह टेस्ट ला नहीं पाती हैं
नाश्ता कितने ही जतन से बनाएं, फिर भी कमी रह ही जाती है
चादर कितनी ही ठीक से बिछाएं, फिर भी सिलवटें रह ही जाती हैं
अलमारियां कितनी ही ठीक रखें, फिर भी चीज़ें समय पर मिल नहीं पाती हैं
खाना कितने ही मन से बनाएं, फिर भी नमक-मिर्च इधर-उधर हो ही जाती है
मुस्कुराहटें कितनी ही चेहरे पर लाएं, फिर भी फीकी रह ही जाती हैं
अपने आप को कितना ही बदलें, फिर भी शिकायतें रह ही जाती हैं
अपनी चाहतें कितनी ही दबाएं, फिर भी अधूरी रह ही जाती हैं
पति से नज़र हटती नहीं, फिर भी बेपरवाह कही ही जाती हैं
'मैं तो कुछ कहता नहीं' कह कर, दिन-रात सुनती ही जाती हैं
पत्नियां जितना भी करें, कम पड़ ही जाती हैं
पत्नियां जितना भी करें, कम पड़ ही जाती हैं।