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Baman Chandra Dixit

Abstract

4.5  

Baman Chandra Dixit

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मेरी ज़ख्म और मैं

मेरी ज़ख्म और मैं

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मरहम ना करो मेरी ज़ख्मों का

ज़िंदा रहने दो इन्हें यादों की तरह।

साथ इनकी कितनी कड़वी भी हो

निभाउंगा इन्हें वादों की तरह।।


दर्द बेख़बर नहीं चीख कराहों से

रह रह के फ़िर टीस बांटता रहा।

किससे कहूँ किस किसका क़ुसूर

मैने सी ली ज़ुबाँ गूंगों की तरह।।


प्यासा भी था पानी थी भी मगर

मेरा पीना उन्हें जैसे मंज़ूर ना था।

कहर फूटा और घड़ा बिखर गया

देख रहे थे वो अनजानों की तरह।।


आवाज़ तो दो हम साथ हैं तेरे

कहते थे जो हर जगह हर वक्त।

जब वक्त वो बेवक्त आन पड़ा

वो भी बेवक्त थे गैरों की तरह।।


लहू रिसते रिसते सुख भी जाते 

ज़ख्म भर भी जाते वक्त के साथ।

निशाँ रह जाते उम्र तलक लेकिन

टिक टिक कर किसी घड़ी की तरह।।


जी करता कभी नोच डालूं आज

निशानों को फिर ज़ख्म बना दूँ।

ज़िंदा रख सकूँ उन्हें दर्दों की तरह

और जी सकूँ ख़ुद, ख़ुद ही कि तरह।।


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