मेरे गाँव की पडंडी
मेरे गाँव की पडंडी
यहाँ
मेरे गाँव की पडंडी थी
बैलगाड़ी की चूँ चूँ
और
बैलों के घुंघरुओं की रुनझुन
तोड़ती थी
नीरवता को।
मैं ढूंढ रहा हूँ
अपने बचपन को
जहाँ खेला करता था
कभी गुल्ली डण्डा
और
फोड़ता था अंटे से कंचे
मैं आज
उसी पगडण्डी को ढूंढ रहा हूँ।
पर
मेरे बचपन की तरह
नहीं मिल रही
मेरे गांव की पगडण्डी।
जहाँ मधुवन सी
माटी की सौंधी महक आती थी
वहीँ आज
सड़ांध आ रही है
ताज़ी हवा का एक झोँका
जो कभी गुदगुदाता था
आज वहीँ
काली हवा आ रही है
मैं
उसी पगडण्डी को ढूंढ रहा हूँ
पर नहीं मिल रही है
मेरे गाँव में
अब वो पगडण्डी।