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S.Dayal Singh

Abstract

4  

S.Dayal Singh

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** कौन हूं मैं **

** कौन हूं मैं **

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**कौन हूं मैं** 

जब चुप था तो कहते थे चुप है क्यूं

अब बोलता हूं कि बदनाम हूं मैं

कुछ समझ नहीं आती कि क्या हूं मैं

बस जो भी हूं सरेआम हूं मैं।

मैं किसी बीती सदी की कहानी नहीं

किसी बहती नदी का भी पानी नहीं

है पर नदियों में बहता जो सदियों से  

उस बहते पानी का पैग़ाम हूं मैं।

एक हंसता बसता शहर था

बरपा उस शहर पे यूं कहर था

लगी ऐसी किसी की शहर को नज़र 

कि उस उजड़े शहर का नाम हूं मैं।

अभी ताज़ी बना कर हटे थे कब्र

आ गई ओर किसी के जाने की ख़बर

ये कौन मुआ ये कैसे मुआ

इन्हीं लाइनों का बना कलाम हूं मैं।

कब अरहट को रोते हैं चांदी के खूह

कब चिड़ियों को रोती है कागों की रूह

यूं ही राग विराग की धुन न छेड़ो

किसी तिड़के पैमाने का जाम हूं मैं।

मैंने ऐसा कोई घर पाया नहीं

जिसका दीया हवा ने बुझाया नहीं

डूब चली जो काली घटा अंदर

वो मातम भरी इक शाम हूं मैं।

वो जो अब तक रहे सरकारों में

वो भी कल को मिलेंगे कतारों में

वो जो कल तक यूं ही दनदनाते रहे

बनी उनके लिए ही लगाम हूं मैं।

मुझे इतना बिठाओ न पलकों पे

कि जब कल को मिलूं कहीं सड़कों पे

उन नज़रों में कहीं मैं भी न गिर जाँऊ,

जिन नज़रों की अब तलक जान हूं मैं।

--एस.दयाल सिंह--



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