STORYMIRROR

मैं फिर भी कोसी जाती हूँ

मैं फिर भी कोसी जाती हूँ

1 min
26.9K


मैं हर महीने ख़ून बहाती हूँ,

पर मैं फिर भी कोसी जाती हूँ।


मुझे मना फिर हर काम है,

मुझे ना पल भर के लिए भी आराम है,

मैं अकेली फिर चिढ़ सी जाती हूँ,

मैं फिर भी कोसी जाती हूँ।


पाँच रोज़ का ज़ख़्म मुझे मिलता है,

महीने दर महीने वो मुझे खलता है,

खुदा के घर ना जाने की रजा मिलती है,

बस यूँही मुझे ये सज़ा मिलती है।


ना सुकून में मैं रह पाती हूँ,

फिर भी बस सहन कर जाती हूँ,

इसके ऊपर भी इस समाज में,

मैं फिर भी कोसी जाती हूँ।


पैदा होते ही मरवा देते क्यूँ है मुझको,

कोई सहारा आज फिर क्यूँ नही है मुझको,

हर औंधे में जब आगे बढ़ सकती हूँ,

तो क्यूँ धकेल दिया पीछे जाता है मुझको।


क्या चूल्हा चोके में ही अब जीवन है मेरा,

क्यूँ नहीं देख सकती मैं भी उजला कोई सवेरा,

दम घूँटता है अब तो इस दुनिया की भीड़ में,

जी करता है अब तो ख़त्म ही कर लूँ मैं ख़ुद को।


अंत में फिर से लाचार मैं हो जाती हूँ,

इसके ऊपर भी इस समाज में,

मैं फिर भी कोसी जाती हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Inspirational