मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ


मैं नदी निकलती हूँ है पर्वतो से
मैदानों में बहती हूँ और अंततः सागर में मिलजाती हूँ।
आप सब को में अपनी दासता सुनाती हूँ,
मैं जब छोटी थी तब बड़े वेग से बहती थी,
आंधी हो या तूफ़ान हो सब कुछ हँसकर सह लेती थी।
मैंने जब उतरी खाली मैदानों में,
मैंने बस प्राणी मात्रा जनसेवा का संकल्प लिया,
जोभी जुड़ा मुझसे उसका उद्धार किया।
आखिर में बचा जो शेष मुझमे,
वो सागर को उपहार रूप दिया,
सबकुछ अर्पण कर के
अपने जीवन को साकार कर दिया।
बस जनमानस से एक फ़रियाद है
पिछले कुछ दशकों से मैं
अपनी अस्मिता से लड़ रही हूँ।
मनुष्य ने मुझे बर्बाद करना प्रारम्भ करदिया है
मेरी स्वच्छन्द विचरण को बेड़ियों में जकड़ दिया है।
मेरी हरियाली और पानी सहेजने वाली
माटी से मुझे विमुख कर दिया है।
मनुष्यने मुझम
ें प्रवाहित जल को
गन्दा और जहरीला कर दिया है।
हे मनुष्य तुझसे एक विनती है
मुझे अपने दुष्कर्मो से भयभीत मत करो,
में नीर नदी हूँ मुझे नाले में न तब्दील मत करो।
मनुष्यों के पाप को ढोते-ढोते
मैं अब कुछ थक-सी गई हूँ,
ऐसा लग रहा है कि मैं अब
सहमी सहमी सिमट-सी गई हूँ।
कुदरत के नियमों की अनदेखी
या अवहेलना मेरी बर्बादी है।
मेरी बर्बादी, अकेले मेरी बर्बादी ही नहीं होगी,
अपितु सम्पूर्ण जीवधारियों के अन्त का कारण बनेगी।
बेटी बचाओ अभियान चलाने वाले
उन संस्कारी मनुष्य समाज को,
पहाड़ों की बेटी के बचाने वाले
अभियान में सम्मिलित करना चाहिए।
मैं सृष्टि की जीवंतता की पहचान हूँ ,
मैं नदी नीर हूँ मुझे अब बर्बाद मत करो।
बस यही तक मेरी दास्तान है
मैं नदी हूँ जीवनदायनी हूँ।