मैं हूँ केसर !
मैं हूँ केसर !
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रत्नगर्भिणी हूं कहलाती ,
सबके पोषण भार उठाती ।
सूरज-बादल संग-संघाती ,
नदियाँ भेजें मुझको पाती ।।
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सूरज ताप से जब इठलाता ,
जोड़ लूं तब भी उससे नाता ।
खुश हो वह इन्द्रधनुष बनाता ,
अपना केसर भी इतराता ।।
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हद हो गई है रहम करो तुम ,
मृग - मरीचिका में मत भटको ।
ख़ुदग़र्ज़ी में फंसे हो क्यों तुम ,
आसव को मत अमृत समझो ।।