मैं हूँ एक नदी चंचल सी
मैं हूँ एक नदी चंचल सी
मैं हूँ एक नदी चंचल सी
हरि के द्वार से आई हूँ
कठिन परिश्रम और तपोबल
भागीरथ से पाई हूँ।
अम्बर से उतरी अवनि पर
वेगों से बूँदें लहरायीं
अपनी चंचल धारा लेकर
शिव की जटा में जा समायी
हौले से जब देव ने छोड़ा।
फेनिल दुग्ध धवल सरिता हुई
श्वेत चाँदनी में तट चमका
नेह बाँट मैं पुण्य सलिला हुई
स्थिर चाल से करूँ यात्रा।
जाह्नवी मन्दाकिनी बनी
गोद भरूँ और माँग सजाऊँ
परिणीताओं की सुहासिनी बनी
मंजिल तय किया जब अपना।
यादों से पट गयी थी राहें
एकाकार मुझे करने को
जलधि की खुली थी बाहें
दिल में एक तूफान लिए।
अब भी मैं हहराती हूँ
हर पूनम में चँदा के संग
जी भरकर बतियाती हूँ।