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Mayank Kumar

Abstract

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Mayank Kumar

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मैं बुड्ढा नहीं हुआ हूं

मैं बुड्ढा नहीं हुआ हूं

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मेरे पोते को देखकर मेरा बेटा कहता है

काश उसमें भी ऐसी सनक होती

वह भी ऐसे ही कदमों से जमीं नाप लेता

सारे गम को एक पल में ही लात मार देता


जीवन को बिना अवसाद ही गले लगा लेता

लेकिन, मेरा बेटा कब से ऐसा सोचने लगा ?

उसने तो अपने कमरें की दीवार पर पुट्टी-पेंट पुताई हैं

औऱ मैंने आज भी अपने कमरे की दीवार चूने से पुताई हैं


तब भी मेरे दीवार पर खूब सनक बाकी है

उसके दीवान से ज्यादा उत्साह बाकी है

उसकी दीवार किसी पुरानी खूंटी को नहीं अपनाता हैं

पर मेरी दीवार पर आज भी पुरानी खूंटी का दस्तक हैं

आज भी मैं उसी पुरानी खूंटी पर दिल की कमीज,

लटकाया करता हूं।


मेहनत से कमाए पसीने को, सुखाया करता हूं

मेरे कमरे की दीवार पर आज भी सनक बाकी

हां बात अलग है कि ज़िस्म बूढ़ा हो गया

लोगों की नजरों में मैं बीता कल हो गया

लेकिन यह भी तो सच्चाई है न कुदरत की

रोज का सवेरा नई जिंदगी लेकर आता है

औऱ उस दिन का रात एक दिन की मौत !

फिर मैं बूढ़ा कैसे हो गया ..!


आज भी मेरी जिंदगी की सनक,

रोज की सवेरे की तरह बाकी है !

सुबह मेरे कमरे की दीवार पर

सूरज के किरणों से मेरे खिड़की की,

एक परछाई बनती हैं

उस परछाई में मेरा भी ज़िस्म कैद होता है


पर कुछ घंटों के बाद वह परछाईं

धीरे-धीरे धुंधली हो जाती है,

ये रोज ऐसे ही चलता रहता है ..

मेरा जीवन कैद होता, रिहा होता रहता है !


हाँ, यह भी सच है कि जीवन की सांझ नजदीक है

मेरा जिस्म अब किसी पुराने खंडहर-सा खड़ा है

पर, तब भी रुह इस खंडहर को छोड़ने को तैयार नहीं हैं,

जब तक कि मेरा पोता एक सूरज ना बन जाए

अपने प्रकाश से मेरे बेटे को चमकीला चाँद ना बना दे


तब तक मुझमें जीने की सनक बाकी है,

मैं बुड्ढा नहीं हुआ हूँ !


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