मैं बरगद हूं....!
मैं बरगद हूं....!
मैं शिव हूं मैं शाश्वत हूं
मैं प्रकृति सृजन का प्रतीक हूं
मैं अक्षय वट वृक्ष हूं
मैं प्रकृति का संरक्षक हूं
मैं युगों युगों से स्थिर बरगद हूं...!
कई सदियों से मैं चुपचाप खड़ा हूं
अब मैं उम्रदराज भी हो गया हूं
खुद को फलते फूलते देखा है मैंने
पर अब सिकुड़ने भी लगा हूं ।
कई सदियों का इतिहास है मेरा
मैंने इतिहास बदलते देखें हैं
मैंने स्थिर प्रज्ञ खड़े खड़े
ना जाने कितनी पीढ़ियों को आते जाते देखा है।
दिनों को महीनों में
महीनों को दशकों,
सदियों को हर पल गुजरते देखा है
वीरान निर्जरता में
जीवन को अंकुरित देखा है।
दुःख देखा है
सुख देखा है
नभ के असीम फलक पर
खुशहाली को बढ़ते देखा है
खेतों खलिहानों को कभी लहलहाते
कभी बंजर होते देखा है।
रोज कई सदियों से
पक्षियों का कलरव सुनता हूं
उन्हें लड़ते झगड़ते
मुझ में आशियाना बनाते देखा है
मधुर लहरिया बनते
भौंरों का गुंजन देखा है
शहरों को आबाद और
बर्बाद बिखरते देखा है।
खुद पर अभिमान है
गर्व से गौरवान्वित खुद को होते देखा है
मैंने अपनी शाखाओं को
हरा भरा होकर सूखते देखा है।
अपने सहस्रबाहु समेटे
मैंने अनगिनत मौसम देखे हैं
तूफानों में अडिग होकर
वक्त के थपेड़े झेले हैं।
कभी चहल पहल
कभी तन्हाई भी देखी है
हंसी ठिठोली के दौर में
अल्हड़ मुटियारनों को अपनी शाखों पर
पींगे बढ़ा झूलते देखा है ।
हर बदलते मौसम में
बादलों को बरसते देखा है
पथिकों को कड़ी धूप में
मेरे साए में आराम फरमाते देखा है
मैंने उन्हें मेरी छाया में रखे घड़ों से
शीतल जल पीते देखा है।
मैंने प्रकृति और सभ्यता का
गजब समन्वय देखा है
अतीत से वर्तमान तक
मधुर स्मृतियां को जवां होते देखा है।
मैंने खुद को बरगद से
बरगद बाबा बनते देखा है
लोगों की आस्था और विश्वास से
खुद के आगे नतमस्तक होते देखा है
मैंने सबको मुझसे जुड़ते
मेरा हिस्सा बनते देखा है।
मैंने गुलामी का दौर भी देखा है
अत्याचार की हर सीमा देखी है
मैंने आजादी के मतवालों को
मेरी शाखाओं में हंसकर
फांसी के फंदों में झूलते देखा है ।
मैंने जंगलों को बनते
रोज उन्हें कटते देखा है
चरागाहों को सिमटकर
कंक्रीट बनते देखा है
छोटी छोटी बस्तियों को
शहर बनते देखा है
दम घोंटती चिमनियों को
धुंआ उगलते देखा है ।
मैंने खुद को जवां से
बूढ़ा होते देखा है
मैंने खुद को दिन रात
रोज सिसकते देखा है ।
पर खुद पर अफसोस भी है
इतना विशाल होते हुए भी
ना मैं खुद को बदल पाया
ना वक्त की धारा को मोड़ पाया ।
अब दुर्बल लाचार
निरीह इच्छा मृत्यु लिए खड़ा हूं
मैं आज स्वयं नतमस्तक
काल का इंतजार कर रहा हूं।