इंसानियत
इंसानियत
लिखा था खत मैंने इंसानियत के पते पर,
वो डाकिया ही मर गया पता खोजते - खोजते
दस्तूर- सा हो गया है लोगो में अंगुलियां उठाने का,
खुद को सच के आइने में देखते ही नहीं
क्यों लड़े इन झूठे किरदारों से,
इससे अच्छा तो खुद से ही जंग सही
चल पड़े थे हम भी इन पुरानी लकीरों पर,
पर वो मंजिल ही नहीं मिली ढूंढते- ढूंढते
लिखा था खत मैंने इंसानियत के पते पर,
वो डाकिया ही मर गया पता खोजते - खोजते
फिर भी शुक्र है इन झूठे किरदारों का,
कम से कम हमें ठोकर तो लगीं
बेरंग से होने लगें थे ख्वाबों के अरमां पर,
अब नई लकीर पर चलने का अंदाजा हैं सही,
रूबरू हुए हैं नवीनता के बीज बोने के लिए,
आगे निकल जाना हैं,पुराने जंजीरों को तोड़ते - तोड़तें
लिखा था खत मैंने इंसानियत के पते पर,
वो डाकिया ही मर गया पता खोजते - खोजते।
