जिन्दगी
जिन्दगी
दौड़ती जिन्दगी ,
कुछ तो मशवरा दे ,
आखिर किसके लिए,
कैसे चला जाए ...
निकल रही है ये,
रेत मुठ्ठी से ,
हर पल हर अवस्था की ,
कुछ तो दिशा दे ,
आखिर किसके लिए ,
कैसे पकड़ा जाए ...
फंस जाते हैं ,
हर दिन मंजिल की ,
रेस में आगे - पीछे ,
कुछ तो तवज्जह कर ,
आखिर कितना और ,
कब तक दौड़ा जाए ...
खड़े हो जाते हैं,
हर दिन सही और ,
गलत की तराजू में ,
कुछ तो इशारे कर ,
आखिर कब तक और,
क्यों खुद को तोला जाए ।