मैं और मेरी कविता
मैं और मेरी कविता
मेरा और कविता का रिश्ता भी बड़ा अजीब है।
यूँ तो हम साथ होते नहीं है।
और अगर हो भी जाये तो माँ पूछ ही लेती है।
ये तेरी ही कविता है?
अजब सा तंज होता है उनके कहने में।
मैं भी दो बार खुद से पूछ लेता हूँ, क्या सच में ये मेरी कविता है?
और मन भी क्या जवाब दे वो खुद सोच में पड़ जाता है कि रात रात भर जिसके लिए जागा,
रोज़ नए ख़्वाब बुने आज उसी के होने पर सवाल है।
उसपर मेरे हक़ पर भी कोई शक करेगा ये तो सोचा ही न था।
पर शायद दिल के किसी कोने में ये बात जरूर उठी होगी कभी।
इसीलिए तो कविता के बाद मैंने अपना नाम लिखा था।
