मैं आजाद पंछी
मैं आजाद पंछी
छटपटाहट में कभी यहां से तोड़ती
तो कभी वहां से मरोड़ती लेकिन
वो पिंजरा था जो टूट ही नहीं रहा था
आखिर मैं उड़ती भी तो कैसे उड़ती
खुश हुआ करते थे लोग अक्सर
मुझे यूं ही पिंजरे में कैद देखकर
बस वही से टूटने लगता था
आजाद होने का मेरा सबर
बड़ी मशक्कत के बाद आखिर
एक दिन पिंजरा तोड़ ही डाला
फिर वहां से खुद को बाहर
खुली हवा में मैंने निकाला
उड़ते उड़ते कुछ शिकारी मिले थे
मेरे पंखों को तोड़ने के लिए पर
मेरे हौसलों ने मजबूर कर दिया
उन्हें तुरंत ही छोड़ने के लिए
बड़े बरसों बाद आज इतना उड़ी कि
थकने के बाद भी उड़ना नहीं छोड़ा
मन था एक बार वापस चलीं जाउँ पर
मैंने अपना रास्ता नहीं मोड़ा
जिसे कोई अब कैद नहीं कर सकता
मैं वैसी ही एक ख्वाब हूं
बस यूं समझ लो कि तब से आज तक
मैं एक पंछी आजाद हूं.