मासूमियत
मासूमियत
हद से ज्यादा मासूमियत ज़माने को रास नही आती है,
कभी पंख नोंच लिये जाते हैं,कभी मुस्कुराहट छीन ली जाती है,
तेज़ाब के छींटों से कभी चेहरा ही नही रूह भी घायल कर दी जाती है,
कब,क्यों ,कैसे जैसे सवालों के दायरों में मासूमियत बाँध दी जाती है,
साहिब,हद से ज्यादा मासूमियत ज़माने को रास नही आती है,
खूबसूरत होने की सजा बड़ी बदसूरती से दी जाती है,
ज़ख्म जिस्म के भर भी जाते हैं,रूह के ज़ख्म ताउम्र साथ रह जाते हैं,
मुस्कुराते हैं जब कभी लब तो अश्क आँखों से छलक जाते हैं,
आईने के नूर थे जो चेहरे,वो चेहरा अपना आईने से छुपाते हैं,
स्याह रंग का काजल का टीका जो कभी आँखों ,कभी कानों के पीछे लगाते थे,
वो चेहरे स्याह रंग की चादर में लिपटे नज़र आते हैं,
जिन चेहरों की लोग नज़रें उतारा करते थे,उन चेहरों से लोग नज़रें चुराया करते हैं,
हद तो तब होती है साहिब,जब जालिम पंजों में मासूम चेहरे दम तोड़ जाते हैं,
कई सवाल पीछे छोड़ जाते हैं,
सोचती हूँ,क्या मासूमियत के दुश्मन चैन से सो पाते होंगे?
कैसे लगते होंगे जब वो मुस्कुराते होंगे?
क्या वो लोग कभी आईने से नज़रें मिला पाते होंगे?
ख़ामोश क्यों हैं आप सब ,बताईये न?
हद से ज्यादा मासूमियत ज़माने को रास क्यों नही आती है?"