मानव और कुदरत
मानव और कुदरत
हे मानव तू कितना स्वार्थी बन गया है
अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाया है
जो बनाया है कुदरत ने उसको ही बिगाड़ पाया है
जगह - जगह पर मानव तुमने कब्जा अपना जमाया है
क्या करें प्रकृति अब उसको ही उजाड़ डाला हे
तोड़फोड़ कर पत्थर सारे खुद का घर बसाया है
ढूंढ - ढूंढ कर सारी वस्तु अपना काम चलाया है
खिलवाड़ किया है मानव तुमने कुदरत पर
क्या दोष है इसमें ईश्वर और कुदरत का
पानी रोका , बिजली रोकी , रोक दिया हर वस्तु को
भोग रहा है मानव फिर तू अपने किये कर्मों को
पेड़ पौधे काट दिए सब तरस रहा अब पानी को
करता है मानव रोज तू कुदरत से खिलवाड़
जिस - दिन कर दिया कुदरत ने खिलवाड़ आप पर
धरती पर मानव तेरा नहीं रहेगा कोई अंश।