कैसे कहूं मां हूं
कैसे कहूं मां हूं
मेरी आँखों का तारा ही मुझे आँखें दिखाता है,
जिसे हर एक खुशी दे दी,वो हर गम से मिलाता है।
जुबां से कुछ कहूं किससे कहूं कैसे कहूं,माँ हूँ,
सिखाया बोलना जिसको,वो अब चुप रहना सिखाता है।
सुला कर सोती थी जिसको वो रातभर जगाता है,
सुनाई लोरियां जिसको वो अब ताने सुनाता है।
सिखाने में उसे कुछ कमी मेरी रही यह सोचूं,
जिसे गिनती सिखाई,गलतियां मेरी सुनाता है।
तू गहरी छाँव है अगर जिंदगी एक धूप है माँ,
धरा पर कब-कहां तुझसा कोई स्वरूप है माँ।
अगर ईश्वर कहीं पर है तो उसे देखा है किसने!
धरा पर तो तू ही ‘ईश्वर’ का ही रूप है माँ।
ना ये ऊँचाई सच्ची है,ना ये आधार सच्चा है,
ना कोई चीज है सच्ची,ना ये संसार सच्चा है।
मगर धरती से अम्बर तक,युगों से लोग कहते हैं,
अगर सच्चा है कुछ जग में तो,वो माँ का प्यार सच्चा है।
जरा सी देर होने पर सभी से पूछती है माँ,
पलक झपके बिना दरवाजा घर का तकती है माँ।
हर एक आहट पे उसका चौंक पड़ना,फिर दुआ देना,
मेरे घर लौट आने तक,बराबर जागती माँ।
सुलाने के लिए मुझको,खुद जागी रही माँ,
सिरहाने से पैर तक अक्सर मेरे बेठी रही माँ।
मेरे सपनों में परियां,फूल तितली भी तभी तक थे,
मुझे आँचल में अ
पने ले के जब लेटी रही माँ।
बड़ी छोटी रकम से घर चलाना जानती थी माँ,
कमी थी पर,बड़ी खुशियां जुटाना जानती थी माँ।
मैं खुशहाली में भी रिश्तों में बस दूरी बना पाया,
गरीबी में भी हर रिश्ता निभाना जानती थी माँ।
कि,लगा बचपन में यूँ अक्सर अंधेरा ही मुकद्दर है,
मगर माँ हौंसला देकर,यूँ बोली तुमको क्या डर है।
कोई आगे निकलने के लिए रास्ता नहीं देगा,
मेरे बच्चों बढ़ो आगे,तुम्हारे साथ ईश्वर है।
किसी के जख्म ये दुनिया,तो अब सिलती नहीं माँ,
कली दिल में कहीं अब प्रीत की खिलती नहीं माँ।
में अपनापन ही अक्सर ढूंढता रहता हूँ रिश्तों में,
तेरी ‘निश्चल’ सी ममता तो कहीं मिलती नहीं माँ।
गमों की भीड़ में जिसने हमें हँसना सिखाया था,
वो जिसके दम से तूफानों ने अपना सर झुकाया था।
किसी भी जुल्म के आगे,कभी ‘झुकना नहीं बैटे’,
‘ओपी’ की उम्र छोटी है ये मुझे माँ ने सिखाया था।
भरे घर में तेरी आहट कहीं मिलती नहीं माँ,
तेरे हाथों की नरमाहट कहीं मिलती नहीं माँ।
मैं तन पर लादे फिरता हूँ,दुशाले रेशमी लेकिन,
तेरी गोदी सी गर्माहट,कहीं मिलती नहीं माँ।
स्वर्ग में भी तेरे जैसी,ममता नहीं मिलती माँ,
बस तू पास रहे मेरे,तो स्वर्ग दिखाई देता है माँ॥