मानस की बेडि़यां
मानस की बेडि़यां
दूर कहीं दूर
बहुत बार
एक मंजिल हर क्षण
पुकारती थी उसे
मगर
उसके पांव की बेड़ियां
हाथ की हथकड़ियां
बढ़ने नही देती थी
उस ओर
और वो सदा
घुटती रही
अंदर ही अंदर
छटपटाती रही
भीतर ही भीतर
हर दिन हर रोज़,
महीनों बरसों
और अचानक
एक दिन
उसके अंदर से आई
चटाख की आवाज़
कुछ ज़ोर से टूटा
और उसने झट से
वो टुकड़े उठा फेंके
कहीं दूर
वो टुकड़े जो थे
डर के, भय के,
लाज के, शर्म के
चुभन के, संकोच के
और तब वह जान पाई
कि उसके पांव में
कोई बेड़ी नहीं थी
और न ही
हाथ में हथकड़ी।
