माँ के कंगन बेंच देती है
माँ के कंगन बेंच देती है
चमन की आबरू खुशियों का' आँगन बेच देती है ।
सियासत कौड़ियों में घर के बर्तन बेच देती है ।
बड़ी कमजर्फ है ये भूख भी गर ठान ले तो फिर ;
पिता की ख्वाहिशें औ'र माँ के कंगन बेच देती है ।
कभी तन से निकलकर मन टटोलो तो समझ आये ;
तवायफ़ हारकर दुनिया से' जीवन बेच देती है ।