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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Tragedy

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Tragedy

माँ के कंगन बेंच देती है

माँ के कंगन बेंच देती है

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चमन की आबरू खुशियों का' आँगन बेच देती है ।

सियासत कौड़ियों में घर के बर्तन बेच देती है ।


बड़ी कमजर्फ है ये भूख भी गर ठान ले तो फिर ;

पिता की ख्वाहिशें औ'र माँ के कंगन बेच देती है ।


कभी तन से निकलकर मन टटोलो तो समझ आये ;

तवायफ़ हारकर दुनिया से' जीवन बेच देती है ।


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