"लोकतंत्र के हत्यारे"
"लोकतंत्र के हत्यारे"
पल-पल बदलती जिह्वा इनकी,
पल-पल रंग अपना बदलते हैं।
धर कर ये चोला सज्जनता का,
भोली जनता को खूब छलते हैं।
समय आये जब चुनाव का तो,
सब नेता नतमस्तक हो जाते हैं।
जीत जाते हैं तो फिरकर जनाब,
अपना चेहरा कभी न दिखाते हैं।
ऊँची हो जाती है कोठी इनकी,
जनता कभी पहुँच नहीं पाती है।
कर याद अपनी गलती को प्रजा,
रह-रह कर फिर खूब पछताती है।
जाति धर्म के नाम पर देखो,
बरसाते रहते ये नित अंगारे हैं।
माना है हमने सेवक जिनको,
ये सब लोकतंत्र के हत्यारे हैं।