लाक्डाउन डायरी
लाक्डाउन डायरी
कौन जानता था
कि वक्त के तेवर यूँ भी पलटते हैं!
हो जाती है यूँ ही
सुबह से शाम रोज़
घर के बंद दरवाज़े
किसी अपने के लिए खुलने को तरसते हैं !
अब महफ़िल नहीं सजती
है कहीं भी दोस्तों की
रिश्ते फ़ोन की आवाज़ पर
या स्क्रीन पर चिपके चेहरों से ही तकते हैं!
वो काँधे पर पड़ा हुआ
बेफ़िक्र हाथ किसी का
वो बेझिझक गले लगना
वो प्यार भरा माथे का चुम्बन अक्सर याद करते हैं!
जरी वाले सूट और साड़ी
कोने में पड़ी श्रिंगार पेटी
थक गए हैं पड़े अलमारी में
बाहर निकलने की रोज़ मुझसे फ़रियाद करते हैं!
वो कालोनी के पार्क का झूला
वो सड़क पर आइसक्रीम की रेड़ी
वो आलीशान स्कूल की बिल्डिंग
किसी बच्चे की खिलखिलाहट को मचलते हैं!
ऑफ़िस की कैंटीन में
अब कोई गप्पबाज़ी नहीं होती
ना ही कोई शिकायत किसी की
लैप्टॉप के आगे बैठे बैठे ही नीरस से दिन कटते हैं!
ऐ कायनात ऐसी भी क्या
हो गयी खाता सब से
क्या ऐसी रुसवाई हो गयी तेरी
क्यूँ चेहरों को सभी नक़ाबों में छुपाए फिरते हैं !