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Sonal Bhatia Randhawa

Abstract Classics

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Sonal Bhatia Randhawa

Abstract Classics

माँ तू आख़िर कब सोती है

माँ तू आख़िर कब सोती है

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बचपन से देखते आए हैं तुझको 

हमें अजब हैरानी होती है 

आज तक ना समझ पाए हम 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


पैदा होने से पहले नौ महीने 

कभी इस करवट तो कभी उस करवट

बेचैन यूँ ही पासे पलट रही होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


गोद में आ जाने के बाद

दिन भर सोते रहते हैं हम 

रात को फिर हमारी भोर होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


बुख़ार हो हल्का सा या 

यूँ ही कभी कुछ हरारत हो 

तू एक आहट पर जगी होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


सुबह स्कूल के लिए उठना है

नाश्ता बनाना तैयार करना है 

हर घंटे पर घड़ी देख रही होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


इम्तिहान है प्लीज़ चार बजे उठा देना

नहीं उठे तो फेल हो जाएँगे माँ 

सोते हैं कहके और माँ जग रही होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


कॉलेज से आते आते कई बार 

जब थोड़ी सी साँझ हो जाती है 

परेशान सी गेट पर खड़ी होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है


ऑफ़िस में काम बहुत है 

माँ कुछ देर में करते हैं बात

भूल जाते हैं हम वो इंतेज़ार में होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है 


बन जाते हैं माँ बाप हम भी 

रम जाते हैं ज़िंदगी में अपनी 

उसे हमारे बच्चों की चिंता होती है

माँ तू आख़िर कब सोती है 


यूँ ही उम्र भर क्यूँ जगती है माँ

क्यूँ हर पल हमारी फ़िक्र करती है 

माँ तू कभी बूढ़ी नहीं होती है 

माँ तू आख़िर कब सोती है।


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