इल्तज़ा
इल्तज़ा
उम्र के इस मझधार में
कुछ देर ठहरना चाहती हूँ मैं,
तैरती रही अब तक सब के लिए
अब अपने लिए डूबना चाहती हूँ मैं,
कुछ अधूरे सपने कुछ अधूरी ख़्वाहिशें
इजाज़त हो तो पूरी करना चाहती हूँ मैं,
कहने को तो एक स्वतंत्र नारी हूँ
पर फिर भी कई बंधनों में बंधी हूँ मैं,
ख़ुद का हो कर भी बहुत कु
छ नहीं है मेरा
समाज की रवायतों की बांदी हूँ मैं,
आकाश की ओर देखते थक गयी
अब अपने पर फैलाकर उड़ना चाहती हूँ मैं,
क़र्ज़ जिंदगी बहुत अदा कर दिए तेरे
फ़र्ज़ भी दूस्तों के लिए निभा दिए बहुतेरे,
कुछ क़र्ज़ कुछ फ़र्ज़ अपने ऊपर भी है मेरे
बस अब वो पूरे करने की मोहलत चाहती हूँ मैं!